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उत्तराखंड में ही क्यूं मनाई जाती है इगास बग्वाल जानिए, पहाड़ की वो रोशनी जो वीरता की याद में जलती है

श्रीनगर गढ़वाल: उत्तराखंड में दीपावली के ग्यारह दिन बाद मनाया जाने वाला पर्व इगास बग्वाल (बूढ़ी दिवाली) आज पूरे राज्य में पारंपरिक हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। इस लोक पर्व का गहरा संबंध गढ़वाल की शौर्य गाथाओं और लोक परंपराओं से जुड़ा हुआ है।

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने प्रदेशवासियों को इगास बग्वाल की शुभकामनाएं देते हुए कहा कि देवभूमि उत्तराखंड की लोक संस्कृति और परंपराएं हमारी पहचान हैं। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार ने इस दिन को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया है ताकि लोग अपनी जड़ों और परंपराओं से जुड़कर इसे परिवार के साथ मना सकें।

क्यों मनाई जाती है इगास बग्वाल?

कार्तिक मास की एकादशी तिथि को मनाया जाने वाला इगास त्योहार दीपावली के 11 दिन बाद आता है। इस दिन लोग मीठे पकवान बनाते हैं, गाय-बैलों की पूजा करते हैं और रात को “भैलो” जलाकर झूमते-नाचते हैं। लेकिन इस पर्व की जड़ें एक वीर गाथा में छिपी हैं, जो गढ़वाल की धरती पर लिखी गई थी।

वीर माधोसिंह भंडारी और इगास का ऐतिहासिक प्रसंग

कहा जाता है कि सोलहवीं शताब्दी (1603–1627 ई.) के दौरान गढ़वाल राज्य पर महाराजा महीपत शाह शासन कर रहे थे। उस समय राज्य की सेना की कमान दो वीर सेनानायकों — माधोसिंह भंडारी और लोदी रिखोला — के हाथों में थी।

जहां लोदी रिखोला राज्य की दक्षिण-पूर्वी सीमा पर आक्रमणकारियों से मोर्चा संभाले हुए थे, वहीं उत्तर दिशा से भोटान्त देश (तिब्बत) के राजा शौका (शौकू) ने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया। तब महाराजा महीपत शाह ने वीर सेनापति माधोसिंह भंडारी को तिब्बती सेना से युद्ध करने का आदेश दिया।

माधोसिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ महीनों तक कठिन और दुर्गम मार्गों से गुजरते हुए तिब्बत की सीमा पर पहुंचे। वहाँ छह माह तक भयंकर युद्ध चला। अंततः गढ़वाली सेना ने तिब्बती सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया और विजय पताका फहराई। इस युद्ध के बाद माधोसिंह भंडारी ने गढ़वाल-तिब्बत सीमा पर पत्थरों की रेखा खींचकर “मुण्डारा” की स्थापना की, जो आज भी सीमा की पहचान है।

दीपावली के 11 दिन बाद मनी विजय की खुशी

लंबे युद्ध और कठिन यात्रा के कारण माधोसिंह भंडारी और उनके सैनिकों के बारे में काफी समय तक कोई समाचार नहीं मिला। इस कारण महाराजा महीपत शाह ने राज्यभर में दीपावली न मनाने का आदेश दिया।

परंतु जब दीपावली के 11वें दिन, कार्तिक मास की एकादशी को, वीर माधोसिंह भंडारी के सकुशल लौटने की सूचना मिली, तो पूरे गढ़वाल में खुशी की लहर दौड़ गई। महाराजा ने उसी दिन दीप जलाकर, नाच-गाकर विजय पर्व मनाने की घोषणा की। तब से हर वर्ष दीपावली के 11वें दिन “इगास बग्वाल” मनाने की परंपरा चली आ रही है। लोगों ने उस दिन दौली के छुल्ले और चीड़ के लकड़ी के टुकड़े जलाकर जश्न मनाया और झूमते हुए वीर सैनिकों का स्वागत किया। तभी से यह पर्व वीरता, लोकसंस्कृति और गढ़वाली एकता का प्रतीक बन गया।

आज भी जीवंत है परंपरा

आज भी उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में इस दिन लोग भैलो जलाकर, झोटा-भैल पूजा करके और लोकगीत गाकर अपनी परंपराओं को संजोए रखते हैं। इगास बग्वाल पर्व न केवल दीपों का त्योहार है, बल्कि यह गढ़वाल की गौरवशाली वीरता और लोक अस्मिता का प्रतीक भी है।

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